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पुरुष चाहे असंख्य अवगुणों की खान हो स्त्री को अपेक्षित गुणों के साथ ही प्रस्तुत होना होगा। यह दोहरा दबाव क्यों और कब तक? एक सहज, स्वतंत्र, शांत और सौम्य जीवन की हकदार वह कब होगी?
स्त्री इस शरीर से परे भी कुछ है, यह प्रमाणित करने की जरूरत क्यों पड़ती है? वह पृथक है, मगर इंसान भी तो है। उसकी इस पृथकता में ही उसकी विशिष्टता है। वह एक साथी, सहचर, सखी, सहगामी हो सकती है लेकिन क्या जरूरी है कि वह समाज के तयशुदा मापदंडों पर भी खरी उतरे?
स्त्रियों के हालात सिर्फ हमारे देश में ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में ही बेहतर नहीं हैं। झूठे आँकड़ों के डंडों से बेहतरी का ढोल पीटा जा रहा है। अमेरिका जैसे तथाकथित 'सभ्य' देश में हर 15 सेकंड में एक महिला अपने पति द्वारा पीटी जाती है। भारत जैसे संस्कारी राष्ट्र में हर 7 मिनट में महिलाओं के विरुद्ध एक अपराध होता है। हर 54वें मिनट में एक बलात्कार होता है।
8 मार्च मनाएँ, लेकिन महिला दिवस सही अर्थों में तब होता है जब सुनीता विलियम्स सितारों की दुनिया में मुस्कुराती हुई विचरण करती हैं। तब जब तमाम 'प्रभावों' का इस्तेमाल करने के बाद भी कोई 'मनु शर्मा' सलाखों के पीछे चला जाता है और एक लड़ाई जीत ली जाती है।
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